Friday, March 20, 2020

मनहरण घनाक्षरी छंद

शेरों जैसे अड़ते थे, 
नहीं कभी झुकते थे।
किस्से राजा भोज के मैं 
सबको सुनाती हूँ ।

          भागीरथ जैसा तप,
          शिवजी का किया जप।
          इतिहास के पन्नों पे,
          उनसे मिलाती हूँ ।

दान दया और धर्म, 
जीवन का यही कर्म।
सिन्धुराज के सपूत की 
बात मैं बताती हूँ ।

            सौ सौ को अकेले मारे,
            संकट में भी ना हारे।
            मातृ भूमि पे जो मिटे,
            बलि बलि जाती हूँ ।

राजा थे महाप्रतापी,
दुश्मनों की फौज नापी।
अलौकिक ज्ञानपुंज,
झाँकी मैं सजाती हूँ ।

          ऐसे कवि ज्ञानी दानी,
          ओज की रही है वाणी।
          चक्रवर्ती राजा के मैं, 
          गीत रोज गाती हूँ ।

अमर है परचम,
चारों दिशि चमचम।
पंवार कुल के लाल,
शीश मैं नवाती हूँ ।

           कालजयी शूरवीर,
           धीर भी रहे गंभीर।
           वीर गाथाओं से सोये,
           राष्ट्र को जगाती हूँ ।

                      कवयीत्री - अलका चौधरी

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