1. भोजन पंगत
उसके बाद ज्यादातर बुजुर्ग पुरखे लोग थाली/ पत्तल के पास अग्नि पर नैवेद्य देते थे, पोवारी में जिसे " निंगरा " कहते हैं । अगरबत्ती भी लगाई जाती थी । फिर ईश्वर को हाथ जोड़कर प्रणाम करने के बाद ही अन्न ग्रहण किया जाता था ।
पंगत में भोजन करते समय भोज शिष्टाचार का पालन किया जाता था, जैसे कि जब तक पंगत में बैठे सभी लोगों का भोजन पूर्ण न हो जाए तब तक सभी लोग बैठे रहते, अंत में सभी लोग साथ में उठते थे ।
भोजन पंगत में परोसने वाला व्यक्ति "और खाना दूं या नहीं " ऐसा नहीं पूछता था खाने वाला व्यक्ति थाली /पत्तल पर हाथ अड़ाकर "नहीं चाहिए" ऐसा दर्शाता था, संपूर्ण भोजन मौन अवस्था में खाया जाता था ।
कोई भी चप्पल जूते पहन कर पंगत वाली जगह नही जा सकता था ।
-साभार
(पोवारी इतिहास, साहित्य एवं उत्कर्ष ग्रुप )
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2. नारबोद
पोले के दूसरे दिन कर पर होने वाला उद्घोष -"खांसी खोखला घेउन जाय नारबोद" , समाज की सुरक्षा के प्रति सामाजिक प्रतिबद्धता और संवेदनशीलता का प्रतीक हैै।
जब हम अच्छा सोचते हैं तो अच्छा होता भी है , प्रकृति भी सकारात्मक सहयोग करने लगती हैं।
समाज में युगों से चली आ रही परंपराएं धर्म से भले ही जोड़ दी गई हों, पर वे वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक आधार लिए हुए हैं। सामूहिक प्रार्थना की भांति सामूहिक आशीर्वाद समारोह हो या सामूहिक उद्घोष वातावरण में सकारात्मक तरंगें और कंपन उत्पन्न करते हैं जिसके संपर्क में आने पर वृहद स्तर पर विषाणु और नकारात्मक शक्तियां नष्ट होती है।
होली के दूसरे दिन कर पर्व की भोर में गांव के सदस्य मिलजुल कर डिंडी निकालते हैं या "खासी खोखला घेउन जाय नारबोद" का उद्घोष करते हैं जिससे समाज और गांव का बीमारियों से बचे रहने का भाव प्रबल रूप से मन में जागृत होता है। मन में उत्पन्न यह जागृति प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से हमारी प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है और हम रोगमुक्त बने रहते हैं।
आशा है आधुनिक युवा पीढ़ी जो हमारी परम्पराओं और प्रथाओं से दूर हो चली थी संभवतः फिर से इनसे जुड़ने लगेगी।
- " सुखवाड़ा " ई-दैनिक और मासिक भारत (पोवारी इतिहास, साहित्य एवं उत्कर्ष ग्रुप )
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"पंगत "अर्थात् भोजन करने हेतु लोगों का कतार से बैठना।
हमारे पोवारी समाज में विवाह प्रसंग , कथा - पूजन, मृत्यु भोज इत्यादि अन्य समारोहों पर बड़ी संख्या में लोगों को एक साथ भोजन कराया जाता था ।
पंगत में भोजन शुरू करने से पहले ये संस्कृत/ हिंदी श्लोक बोले जाते थे :-
" भोजन नहीं यज्ञ है,कर ब्रम्ह अग्नि में आहुती,
नर शुद्ध चित्त सेवन करें तब ब्रम्ह ही होवे मति "
" ऐसी किया कर भावना अर्पण किया कर ब्रम्ह को,
कर फिर भोजन प्रेमसे सद्बुद्धि पावे धर्म को"
" अन्न हे पूर्ण ब्रम्ह.
उदर भरण नोहे जाणिजे पुण्यकर्म "
हमारे पोवारी समाज में विवाह प्रसंग , कथा - पूजन, मृत्यु भोज इत्यादि अन्य समारोहों पर बड़ी संख्या में लोगों को एक साथ भोजन कराया जाता था ।
पंगत में भोजन शुरू करने से पहले ये संस्कृत/ हिंदी श्लोक बोले जाते थे :-
" भोजन नहीं यज्ञ है,कर ब्रम्ह अग्नि में आहुती,
नर शुद्ध चित्त सेवन करें तब ब्रम्ह ही होवे मति "
" ऐसी किया कर भावना अर्पण किया कर ब्रम्ह को,
कर फिर भोजन प्रेमसे सद्बुद्धि पावे धर्म को"
" अन्न हे पूर्ण ब्रम्ह.
उदर भरण नोहे जाणिजे पुण्यकर्म "
उसके बाद ज्यादातर बुजुर्ग पुरखे लोग थाली/ पत्तल के पास अग्नि पर नैवेद्य देते थे, पोवारी में जिसे " निंगरा " कहते हैं । अगरबत्ती भी लगाई जाती थी । फिर ईश्वर को हाथ जोड़कर प्रणाम करने के बाद ही अन्न ग्रहण किया जाता था ।
पंगत में भोजन करते समय भोज शिष्टाचार का पालन किया जाता था, जैसे कि जब तक पंगत में बैठे सभी लोगों का भोजन पूर्ण न हो जाए तब तक सभी लोग बैठे रहते, अंत में सभी लोग साथ में उठते थे ।
भोजन पंगत में परोसने वाला व्यक्ति "और खाना दूं या नहीं " ऐसा नहीं पूछता था खाने वाला व्यक्ति थाली /पत्तल पर हाथ अड़ाकर "नहीं चाहिए" ऐसा दर्शाता था, संपूर्ण भोजन मौन अवस्था में खाया जाता था ।
कोई भी चप्पल जूते पहन कर पंगत वाली जगह नही जा सकता था ।
-साभार
(पोवारी इतिहास, साहित्य एवं उत्कर्ष ग्रुप )
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2. नारबोद
पोले के दूसरे दिन कर पर होने वाला उद्घोष -"खांसी खोखला घेउन जाय नारबोद" , समाज की सुरक्षा के प्रति सामाजिक प्रतिबद्धता और संवेदनशीलता का प्रतीक हैै।
जब हम अच्छा सोचते हैं तो अच्छा होता भी है , प्रकृति भी सकारात्मक सहयोग करने लगती हैं।
समाज में युगों से चली आ रही परंपराएं धर्म से भले ही जोड़ दी गई हों, पर वे वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक आधार लिए हुए हैं। सामूहिक प्रार्थना की भांति सामूहिक आशीर्वाद समारोह हो या सामूहिक उद्घोष वातावरण में सकारात्मक तरंगें और कंपन उत्पन्न करते हैं जिसके संपर्क में आने पर वृहद स्तर पर विषाणु और नकारात्मक शक्तियां नष्ट होती है।
होली के दूसरे दिन कर पर्व की भोर में गांव के सदस्य मिलजुल कर डिंडी निकालते हैं या "खासी खोखला घेउन जाय नारबोद" का उद्घोष करते हैं जिससे समाज और गांव का बीमारियों से बचे रहने का भाव प्रबल रूप से मन में जागृत होता है। मन में उत्पन्न यह जागृति प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से हमारी प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है और हम रोगमुक्त बने रहते हैं।
आशा है आधुनिक युवा पीढ़ी जो हमारी परम्पराओं और प्रथाओं से दूर हो चली थी संभवतः फिर से इनसे जुड़ने लगेगी।
- " सुखवाड़ा " ई-दैनिक और मासिक भारत (पोवारी इतिहास, साहित्य एवं उत्कर्ष ग्रुप )
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Marbod AAI ji u narbod nohoy
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