पोवार/पंवार समाज के विवाह के दस्तुर
लेखक: भोजलालभाऊ पारधी, नागपुर
सृष्टी के निर्माण होते ही भगवान ने संसार का खेल रचाया तथा उसके दिन ब दिन विकास स निर्माण किये गये जीव को बढ़ाने के लिए नर मादा यह दो प्रकार के जीव पैदा किये तथा प्रजनन के लिए कुछ नियम बनाये। विवाह यह भी एक भगवान निर्धित नियम या बंधन है। जिसे भगवानों ने खुद अपनाया तथा विष्णुजी ने लक्ष्मी से, शिवजी ने पार्वती से और इन्द्र ने इद्रायणी से विधीपूर्वक विवाह रचाया।
पुरातन काल से विवाह का बंधन एक नाजुक बंधन निरूपित कर उसे विधीपूर्वक अनेक दस्तुर बनाये गये। हमारा पोवारों का समाज क्षत्रिय वर्ण में आता है, शादी में ७ भावर की प्रथा प्रचलित हुई तथा अनेक दस्तुर बनाये गये। उन सारे दस्तुरो को विश्लेषणात्मक प्रारूप में लिखाया जाए तो एक बड़ी किताब बन जायेगी। इसलिए संक्षेप में विवाह के दस्तुरों को प्रस्तुत कर रहा हूं। आज से ६० - ७० साल पहले के दस्तुर लिए जाए तो उस वक्त ७ दिन तक दस्तुर हुआ करते थे। उनमें समय के अनुसार परिवर्तन किए गए और विवाह ५ दिन, फिर ३ दिन, फिर एक दिन पर आ गये। अब समय का इतना तकाजा है कि इतने कम समय में सारे दस्तर करना असंभव हो गया है । फिर भी अपने समाज के युवा - युवतियों को ज्ञात करने हेतु कुछ दस्तुर किए जा रहे है। वर - वधु की खोज विवाह प्रक्रिया में वर - वधु याने लडका लडकी की खोज करना अनिवार्य होता है। इसके लिए मित्र, परिवार रिश्तेदारों के मदत से वर - वधू खोज किया जाता है, खुद के भी लडका लडकी की बात खुद नहीं कर सकते , इसलिए बीच में मध्यस्थ की जरुरत होती है, जिसे माहती कहते है। यह माहती दोनों पक्षों को मिलाकर लड़का व लड़की देखकर पसंद किए जाते है और लड़का - लड़की, कुल, परिवार, गोत्र, पसंद आने के बाद दोनों तरफ से पसंती को आखरी मुहर लगाई जाती है तथा इसे पक्का करने के लिए (गुरी सुवारी या भातखानी) साधा खाना देकर दस - बीस रुपये से दोनों पक्ष पांव पढ़ते है। इससे शादी पक्की होने की प्राथमिक सम्मती मानी जाती है। उसके बाद शादी पक्की करने के लिए पांव लगाई, साक्षगंध या फलदान दोनों पक्ष की ओर से होता है। यह हुए बिना शादी पक्की नहीं मानी जाती। इसलिए दोनों पक्ष के ओर से शादी का यह पहला दस्तुर माना जाता है और शादी कानुनन पक्की मानी जाती है।
१) पांव लगाई , साक्षगंध या फलदान: यह दस्तुर दोनों पक्ष के ओर से अलग - अलग तारीख को विवाह के पहले किया जाता है। इसमें वर - वधु के लिए कपडे, श्रृंगार का सामान, पांच प्रकार के फल, श्रीफल, सुटकेस वगैरा खरीदे जाते है तथा दोनों ओर से बाराती वर - वधु को कुमकुम शक्तिनुसार पैसे देकर पांव पड़ते है। यही कुमकुम और सामान शादी पक्की होने का साक्षीदार होता है। नाई द्वारा दुल्हन के कुमकुम से पांव लिखे जाते है तथा खाना खाकर अपने गांव वापस चले जाते है।
२) मांडोधरी: मांडोधरी के लिए जंगल में जाकर १२ डेरी, ४ लकटे (फाटे) २५ बांस तथा जामुन की डगाल (टहनी) जरूरी होती है। १२ डेरी में से १ डेरी मोहई की अत्यावश्यक है क्योंकि वही खास लगुनडेर मानी जाती है। घर के मुहल्ले के लोग खेत से या जंगल में बैलगाडी ले जाकर उपरोक्त लकडी लाते है। बाद दुल्हे के घर वर को तथा दुल्हन के घर वधु की आरती सजाकर सवासिनी बाई लोग बैलगाडी के पास लाते है तथा चावल और कुमकुम डेरियों को तथा गाड़ी चालक को टिका लगाते है।
३) मंडप डालना: शादी शुरु होने के एक दिन पहले मंडप बनाया जाता है जो मांडोधरी लाई गई होती है उसे मुहल्ले के लोग तथा परिवार के ओर रिस्तेदार रात में मंडप डालते है और उसे सजाते है। गांव का बढ़ई बैठने का पाट, मायेदसाई के दो पाट बनाकर देता है, तथा बीच के डेर को दिया टांगने के लिए खुंटी बनाकर देता है। इसके लिए उसे पैसे भी दिये जाते है तथा सभी आमंत्रित निमंत्रित मेहमानों को चायपानी देकर मंडप का कार्य पूरा होता है। पहले के जमाने में मंडप डालने आनेवाले लोगों को खाना भी खिलाया जाता था । इसके बाद पांच सवासिनी सब्बल और बिवळा लेकर गांव के बाहर जाकर माटी खोदकर लाते है, उसे ही मागरमाटी या तेलपाटी कहते है। लाई गई माटी से माथन बेठ तथा चुलहा बनाया जाता है, इसे बहुत श्रध्दा से मंगलमय माना जाता है। लगुन डेर को दूध दही भात डालकर पांच जने डेर को गढ्ढे में डालते है तथा सुपारी पैसा हरकुंड की गाठ पीले कपड़े में (हल्दी लगा हुआ कपड़ा) बांधकर मोहई की लगुन डेर को बांधा जाता है।
४) बिजोरा: दोनो पक्ष के और से बिजोरे की बारात ले जायी जाती है तथा अच्छे ठाटबांट से, बाजा बजाकर, खाचर से बारात ले जायी जाती है। पहले बारात दुल्हे के तरफ से दुल्हन के घर जाती है। इसमें बारातीयों की बहुत आवभगत होती है तथा पितल के कटोरे में सब बारातीयों के पांव धोये जाते है। फिर पहला चढ़ाव मंडप में होता है इसमें दुल्हन के लिये लाए गए कपड़े चढ़ाये जाते है। चढ़ावा के कपड़े पहनने के बाद दुसरा चढ़ावा घर में होता है तथा इस चढ़ावे में सोना, चांदी के जेवर चढ़ाये जाते है। तीसरा चढ़ावा मंडप के बाहर चार सुमी चारपाई बिछाकर चारों कोने पर चार बाराती तथा बिच में दुल्हे का बड़ा भाई बैठकर दुल्हन को गोद में बिठाकर बैठता है, और उसी वक्ती तीसरी साड़ी चढ़ाई जाती है। यह साड़ी शादी भर पहनी नहीं जाती तथा यह दिपावली के वक्त चरळ के दस्तुर में पहनी जाती है। इस प्रकार ३ दस्तुर दुल्हन के घर होते है। बाद में खाना खाने के बाद गणावे का दस्तुर होता है। इसमें ९ हरकंड, ९ सुपारी और ९ पैसे पाट के ऊपर ९ खाने बनाकर रखते है। दोनों पक्ष के समधी पाटपर आमने सामने बैठकर मंत्र के रुप में देवी देवताओं के नाम पुकारे जाते है तथा प्रत्येक नाम के पीछे १ पान (बिडा बनाया हुआ) देना पड़ता है । इसमें यदि पूरे मंत्र पढ़े जाये तो कुल ३६० बिडे लगते है। इसे ही पान जीतनी कहते है। सभी देवताओं को साक्षी के रूप में मंत्रोच्चार से बुलाया जाता है और उन ९ खानों की दो गाठे बनाई जाती है, एक में पांच तथा दूसरे में चार खाने की हलदी, सुपारी, पैसा बांधकर गाठे बनाई जाती है तथा वे गाठे दोनों पक्ष के मामा के पास रखी जाती है। इसे ही लगुन गाठ कहा जाता है। जनोसा देना - गणावे का दस्तुर होने के बाद जनोसा दिया जाता है। इसके लिए शादी के मकान के विरुध्द का मकान देखा जाता है। पुरातन काल में शादी के लिए लढाईयां भी होती थी इसलिए यह मकान अपना विश्वासू या पक्षधर के रुप में बनाते होगे क्योंकि यह मकान दुल्हे का खास मकान होता है, तथा दुल्हे की खाचर (गुडुर) उसी मकान में रखी जाती है। इसी प्रकार दुल्हे के तरफ दुल्हनवालों की भी बिजोरे की बारात जाती है। लेकिन वहां सिर्फ दो ही दस्तुर होते है। पहला चडाव मंडप में कपड़े चढ़ाये जाते है। दूसरा चढाव सोना - चांदी का इसमें शक्तिनुसार अंगुठी या घड़ी चढ़ाई जाती है और भोजन के बाद बारात वापस आती है।
५) कांकन बांधना: दुल्हा और दुल्हन को अपने अपने मंडप में कणेरी पान पांच लेकर उसमें घनिया जीरा तथा चावल लपेटकर धागे में तांबे की अंगुठी (मुंदी या छल्ला) बांधकर दुल्हा - दुल्हन के बुवा, आत्या या फुवा अगर ये हाजर नहीं है तो बहन यह काकन बांध सकती है। दुल्हा और दुल्हन को दाहीने हात में यह बंधन बांधते है। इसमें ९ गाठे गिराई जाती है। कांकन बंधने के बाद ही असलियत में। दुल्हा - दुल्हन बनते है तथा इसके बाद कोई भी काम करने की सक्त मनाई रहती है। बाद में यही गाठे बाल खोलने के बाद दुल्हन के घर ही छोड़ी जाती है।
६) हलदी चड़ाना: यह एक महत्वपूर्ण दस्तुर होता है, इसके लिए कुटूंब परिवार की महिलायें आरती तथा श्रीफल और पूजा का सामान लेकर जवाई (दामाद) साथ में बाजे सहीत जाते है तथा गांव के सभी देवताओं की पूजा करके शादी में सांसारिक जीवन में सुखशांति की आराधना की जाती है।
७) तेलमाटी या मागर माटी: इस दस्तुर के लिए कम से कम ५ सवासिनी गांव के बाहर सब्बल लेकर जाती है और विवले में (टोकनी) माटी भरते है, बाजे के साथ माटी घर में लाते है और उस माटी से चुल्हा तथा माथन बेठ बनाते है उसी चुल्हे पर खाने के लिए (प्रसाद समझकर) फुये बनाये जाते है और वे सबको बांटते है।
८) तेल चढ़ाई, माहे दसाई और मंडप सुतना: देवघर में कुलदेवता के सामने तेल चढाते है। और माटी के दिपक (नांदड) जलाकर बडे टोकन में रखकर उपर से परडा झाककर दुल्हन के माता - पिता या चाचा - चाची, भाई - भवजाई इनमें से जो भी हाजर हो यह टोकना पुरुष तथा केटली में पानी भरकर स्त्री छपरी से लेकर मंडप तक पानी की धार छोडकर लाते है। इन्हीं जोडे को माहे दसाई करने वाली कहते है। इसके लिए दोनों पुरुष स्त्री को उपवासी रहना पडता है। इसके लिए दोनों ला गाठजोडा बांधा जाता है। घर के अंदर माहेदसाई मंडप तक लाने के लिए लकडी के पाट पर माती की बेठ बना के बडे वृक्ष के पतो के १४ जोडी द्रोण चढाये जाते है तथा सोजी बनाकर चढाई जाती है ओर कुलदेवता गामदेवताओं की आराधना की जाती है। द्रोण बनाने का काम दामाद (जवाई ) को करना पडता है।
९) मंडप सुतना: उसके बाद जवाई द्वारा मंडप के चारों दिशा व चारो कोने में सुत तथा आम के पत्ती की तोरण तथा रंगबिरंगी सजावट की जाती है। द्रोण के बदले में दामादों को खाजा देना पडता है, अन्यथा दामाद द्रोण छुपाकर रखते है, और खाजे के लिए रुसवा पकडते है। उन्हें खुश करना जरूरी होता।
१०) अहेर: (हल्दी) जवाई द्वारा मंडप में बिछायत करके दुल्हा दुल्हन को (अपने अपने मंडप में) लाकर बिठाते है इसके लिए समकुल ही बैठते है, अपने ही गोत्र के पुरुष एकतरफ तथा दुल्हा या दुल्हन के लाईन में जनाना बैठती है। इसके बाद जो हल्दी गांव के देवताओं को चढाई जाती है वही हल्दी (पिसी हुई गीली करके दल्हा दुल्हन को सवासीनी लेपन करती है तथा सभी बाई लोग तथा बैठे हूये परिवार वालों को हल्दी लगाई जाती है। हल्दी लगाने का कार्य पूर्ण होने के बाद आमंत्रित मेहमान महिलायें साथ में जो भी नये वस्त्र, धोती, साडी, दुपट्टा, रुमाल वगैरा लाते है। वे संबंधीत व्यक्ति को टिका लगाकर उपहार रुप में दिये जाते है।
११) डेरी पूजना: अहेर होने के बाद नये कपडो के टुकडे निकालकर कुलदेवता को चढाये जाते है, इसे दसी चढाना कहते है। बाद में घरवाले नये कपडे पहनकर मंडप के डेरीयों की पुजा करते है। इसके बाद घरवाले के ओर से जवाई तथा भांजे को यथाशक्ति नये कपडे देकर स्वागत किया जाता है।
१२) जोडी नहाना: पुराने जमाने में अहेर पूर्ण होने के बाद ५ जोडे (लडकी जवाई ) याने ५ शादीसुदा लडकीया तथा जवाई को आमने सामने बिठाया जाता था। लड़की अपने पती को हल्दी लगाती थी और पती भी अपने पत्नी को गाल को हल्दी लगाते थे। उसके बाद दुल्हा या दुल्हन के साथ नहाते थे।
१३) दुल्हा या दुल्हन को नहलाना: डेरी पूजने के बाद दुल्हा या दुल्हन को मंडप में नहलाया जाता है। इसके लिए मिट्टी की दो दो करई में पानी भरकर चार कोने पर रखकर उसे धागे से पांच धेरै गंडकर बननेवाले चौरस में दुल्हा या दुल्हन को बिठाकर पांच सवासिनी हल्दी लगाकर नहलाती है। आखिर में सभी आठो करई।का पानी इकट्ठा करके दुल्हा या दुल्हन के सर पर परडा रखकर छोडा जाता है। इसी को करस का पानी कहते है।
१४) लगुन की बारात के लिए देवघर में दुल्हे को सजाना: दुल्हे को शादी के सारे कपडे और साज श्रृंगार चढाकर माता, चाची याने (जिन्हे वरुमाये कहते है) पानी का कुरला तथा दुध पिलाना, कुल देवताओं की पुजा करना, माता ने दुल्हे की उंगली पकडकर मंडप में लाकर खडा करना तथा सब कुटुंब परिवार, रिस्तेदारों ने पांव पडना। इसके बाद सपटनी करना, पुर्वजों को नेवैध चढाना तथा शादी निर्विघ्न निपटाने की याचना करना और साक्षी रहने की विनंती करना। कापड पकडनेवाला मजूर (कावडी) ने कावड बनाकर उसमें नमक, चावल, धोती तथा सुम (घास) पकडना और कावडीया यह कावड लेकर बारात के साथ चलता है। पांव पढ़ने के बाद दुल्हे को चंदोडे की ओळ (चादर या शाल) का मंडप ( छत ) बनाकर बीच में खडा करके बीच में तुतारी से उठाकर मंदीर जैसा सीन बनाकर बाजे बॅड, धुमाल, डफली के आवज तथा फटाके, बारुद के धमाके के साथ घर से बारात निकलती है। पुराने जमाने में बालविवाह होते थे इसलिए दुल्हे के जीजा या मामा दुल्हे को कंधे पर बिठाकर चलते थे। मंदीर पर आने के बाद पूजापाठ करके दुल्हे की माँ, चाची, भाभी वगैरे गुडुर के सामने आकर धुरपर आरती रखती है। (गुडुर याने दुल्हे के लिए सजाई गई बड़े बड़े बैलोवाली बड़ी से बड़ी खाचर जिसे जीतना सजाये कम होता है) आरती छुडाने को बारती पकडनेवाली महिला के भाई या पिता को सामने आकर आरती में पैसे डालकर छुडाना पड़ता है। उसके बाद दुल्हा गुडुर में बैठता है तथा सवासिनी (करौली) भी बैठती है, इन सबको मिठी शरबत पिलाकर बारात रवाना होती है। इस वक्त का माहौल जैसे कोई राजा महाराजा सजधजकर लश्कर सहित बँड बाजे, नगारे शहनाई सिंडा बजाते दुश्मन पर चढ़ाई करने जाने जैसा होता है। सभी की छाती आनंद और गर्व से फूली हुई होती है। सामने आनेवाले हर गांव के बाहर से ही बाजे का आवाज फटाके बारुद का शोरगुल के साथ धूमधाम से चलती है। बाजे फटाको का आवाज गुंजता रहता है। उन बैलों के गले के घोलर, झील मोर पकट से एक मधुर संगीत निर्माण होता है और यह मन को बहुत भाता है। बारात शादीवाले गांव के हनुमान मंदीर पर जाकर खडी हो जाती है। और वहां मंदी में श्रीफल चढाकर पुजा की जाती है। बाजेवालों को दुल्हन के घर भेजकर दुल्हन के तरफ से आरती सजाकर सभी घर बाराती आमंत्रित निमंत्रित मेहमान दुल्हा उतारने आते है। आरतीवाली महिला सवासीन गुडुर के धुर पर आरती रखती है। (पहले के जमाने में इस दस्तुर के लिए समधी को ज्यादा से ज्यादा पैसे डालने का प्रेशर डाला जाता था तथा कभी कभी झगडा भी हो जाता था) धुर छुटने के बाद आरती दुल्हे को उतारने गुडुर के पीछे आकर चंदोडो की ओल नीचे बिछाकर दुल्हे को तथा सवासिनी (करौली) यों को मिठी शरबत पिलाकर दुल्हे को उतारा जाता है। फिर भगवान के दर्शन करके चंदोलो की ओल काही छत बनाकर दुलहे को नाचते कुदते मंडप तक लाया जाता है। दुल्हा मंडप में पहुंचने के बाद मंडप पर जो शगुन बास डाला जाता है उसे हात पकडकर रखता है तथा मंडप पर से दुल्हन के जीजा रंग डालते है तथा उसके बाद दुल्हा वापस जानवासे पर पहुंच जाता है। इसे ही मांडो मारना कहते है। जनोसे पर दुल्हे को नहलाया जाता है और थोडे समय के लिए शांतता फैल जाती है। इसी समय के बीच में दुल्हे के तरफ से लाई गई कावड का सामान नमक, चावल, धोत, धोती वगैरा हर वक्त एक एक करके पहुचाये जाते है। इसके लिए कम से कम पाच बाराती जाते है तथा दुल्हन के तरफ से भी पांच बाराती आकर पांव धोते है, टीका लगाते है और चढावा स्वीकार करते है। इसे ही तेलगौडा, नोनगौडा की बाराते कहते है। इसके बाद दुल्हन के तरफ से खिर लाई जाती है और दुल्हे के साथ करोली सब मिलकर मिठी खीर खाते है। उसके बाद दुल्हा फिर से सजकर लग्न मंडप में पहुंचाया जाता है। इस समय के बीच दुल्हन का मंडप भी जातना सजाया जा सके उतना सजाते है। सभी बाराती आंगन में बिछायत पर बैठते है। दुल्हा मंडप के बाहर खडा किया जाता है और दुल्हन को सजाकर सामने खडी करते है। फिर जो लगुन गाठे मामाओं के पास रहती है उसे एक दुसरे को फेर दिया जाता है। इस समय दुल्हा दुल्हन को स्टेज या कुर्सी पर (पुराने जमाने में बास के टोकनों में) बिठाया जाता है। बैठते वक्त दुल्हे का मुह छपरी के तरफ तथा दुल्हन का मुंह अंगन के ओर रखा जाता है। फिर मामाओं ने दोनों के बीच जो धोती कापड के साथ आती है उसका अंतर - पाट बनाकर पकडा जाता है। इसी धोती को खरगनेत पाट बनाकर पकडा जाता है। इसी धोती को खरगनेत की धोती कहते है।
१५) शादी लगाना : ब्राम्हण, पंडीत या बारातियों ने शुभमंगल कहना और पांच श्लोक के बाद दुल्हा दुल्हन का नाम लेकर सावधान करना। (पुराने जमाने में शादी लगानेवाला पंडीत घर के आडे पर चढकर सुर्यास्त होने का इंतजार करता था, जब सूर्य अस्त हो रहा होता है तभी शादी का आखरी शुभमंगल बोला जाता था इसी समय को गोधुली बेला की शादी कहते है। सावधान होते ही बाजे, नगाडे, बँड, शहनाई, धुमाल, बजाना तथा फटाके फोडने का काम होता है। दुल्हन के माँ ने दुल्हा दुल्हन को पान का बिडा चखाना और सोना या दाब कहना। दुल्हे ने सोना कहां तो ठी नहीं तो तुम्हारे माँ ने डाला गाव ऐसा मुहावरा छोडना। इसी बीच बारातियों तथा ग्रामनिवासियों को पान सुपारी, इतर लगाना, गलाब जल छिडकना यह रस्म अदा होती रहती है। दुल्हा - दुल्हन को घर में ले जाते वक्त दुल्हन के माँ ने दुल्हे की अंगुली तथा दुल्ले ने दुल्हन की अंगुली पकडकर चलना, दरवाजे पर आजीयो ने या भावजोने दरवाजा रोककर दुल्हन से दुल्हे का और दुल्हे से दुल्हन का नाम पुछाना और मजाक करती है। घर में जाकर नास्ता पानी तथा हंसी मजाक करना चलते रहता है।
१६) समधी भेट : इसी वक्त मंडप के बाहर अच्छी बिछायत करके दोनों पक्ष के रिश्तेदार को दो ग्रुप में बिठाकर पान सुपारी, अतर गुलाल छिडकाना, गुलाब जल छिडकना और पान बिडी माचीस का इस्तेमाल करना होता है। इसी दौरान दोनों पक्ष का नाम करके गले मिलकर परिचय किया जाता है। इसे ही समधी भेट कहते है। इसका मुख्य उद्देश्य दोनों पक्षों के रिस्ते संबंधी पहचान होती है।
१७) भावर गिराना तथा दहेज : परिचय के साथ नास्ता पानी हंसी मजाक होने के बाद धोत (जो कावड के साथ आती है) उसे बाजेगाजे से मंडप में लाते है और दूल्हा दुल्हन को बैठने के लिए गुडुर और सहगुडुर (खाचर) की जुवाडी लाकर मंडप में रखी जाती है। उस पर दुल्हा दुल्हन को बिठाया जाता है। धोत के दो परडे के बीच में रखकर दुल्हा दुल्हन के सीर पर पांच बारातीयों के साथ सात बार घुमकर फेरे लिये जाते हैं तथा कुंवारी कन्या परणु जाये घी यह मंत्रोच्चार करके सात भावर का दस्तुर किया जाता है।
उसके बाद दुल्हा दुलन को जुवाडी पर बिठाया जाता है तथा दुल्हन की माँ और पिताजी दोनों गाठ जोडा बांधकर वर - वधु के दुध तथा दुभारी से पांव धोते है। उसके बाद जो सुम (घास) कावड के साथ लाया जाता है उसकी कावडीया एक लंबी रस्सी बनाता है। तथा उसके पांच घेरे बनाकर उतनाही घागा के घेरे लेकर बीच में कनिक के गोले से चिपकाकर वर - वधु के गले में दुल्हे के छोटे भाई द्वारा पहनाया जाता है। इसे ही गोत गुथना कहते है। इसके बाद दहेज (आंदन) गिराना चालू होता है। और सभी इष्टमित्र, कदंच परिवार, रिश्तेदारों द्वारा शक्तिनुसार सप्रेम भेट दी जाती है। सप्रेम भेंट पूरी होने के बाद जवाई द्वारा गिनती करके दुल्हे पक्ष को सौंप दिया जाते है। आरपिर में दुल्हन के छोटे भाई द्वारा गोत छुड़ाया जाता है तथा इसके बदले गाय, भैस, बकरी, अन्नदान, और जो भी दे सकते है उसे कबुल करके गोत छुड़वाया जाता है। बाद में डेरी पूजकर खाना पीना होता है।
१८ ) बाल खेलना :विवाह के दूसरे दिन दुल्हा दुल्हन को मंडप में लाकर सारीफासा (हारजीत) का खेल होता है, इसमे गोटी के रुप में बाल फल्ली के दाने का उपयोग किया जाता है तथा दुल्हा दुल्हन एक दूसरे को उना का पूरा कहते है उना याने विषम जोडी तथा पूरा याने सम इस पर से हारजीत लगाई ली गई है। जाती है इसे वाल खेलना कहते है। संभवतः इस खेल की प्रेरणा शिव - पार्वती के चौसर बाजी से
१९) जोडी नहाना: बाल खेलना होने के बाद हारजीत किसी की भी हो, क्षमा कर दिया जाता है तथा कोई दंड या सजा नहीं दी जाती और ५ जोडियां (दुल्हे के तरफ की दो और दुल्हन के तरफ की दो और दुलहा दुल्हन) ऐसी ५ जोडी मिलाकर यह कार्य होता है। इसमें बहने और जीजाओं का इस्तेमाल किया जाता है। दुल्हा दुल्हन के साथ नहाना होता है तथा इस वक्त पानी का कुरला एक दूसरे पर डालकर खूब पानी खर्च करके मौजमस्ती होती है। अपने अपने हसने वाली महिलाओं पर पानी डालकर मौज करते है। मीट्टी की करई और धागे से चौरस बनाकर उसमें दुल्हा दुल्हन को नहलाया जाता है और आठों करई का पानी इकट्ठा करके दुल्हे के सामने दुल्हन को खडी करके दोनों के हातों में हात रखकर ओंजल बनाई जाती है तथा परडे को शिरके उपर पकडकर वह करस का पानी डाला जाता है। उसके बाद दुल्हन को परडे में बिछाकर उपर से चादर या शाल ढालकर दुल्हे ने दुल्हन को उठाकर देवघर में ले जाना होता है, तब आजिया दरवाजा रोककर दुल्हन को पकडकर नाचने को कहती है। और तब तक नहीं छोडती जबतक दुल्हे को पकडे हुए ही खुद को न नचाये। वैसे ही बाकी जोडी वाले भी अपने अपने पत्नीयों को उठाकर देवघर में ले जाते है। कपडे बदलने के बाद मंडप की डेरी पूजन किया जाता है।
२०) ढेंडा: मंडप में चारपाई (चारसुमी खटीया) डालकर चंदोलो की ओल बिछाकर उसपर दुल्हे दुल्हन को खडा करके बाराती तथा महिला दुल्हा दुल्हन के पांव पढते है। पुराने जमाने में दुल्हा दुल्हन को कडे पर पुरुष लोग दोनों को लेकर नाचते थे। इस वक्त के पांव पढाई के पैसे बाजंत्री तथा नाई को होते है। इसे लैंडा नाचना कहते है।
२१) कुसुंबा: पराने जमाने में पानी भरने के लिए पैसे लेने देने का कोई ठराव नहीं होता या तथा कसंब में जीतना पैसा होता था इसके लिए पानी भरनेवाले आरती बनाकर पान सुपारी, रंग गुलाल, बिडी सिगरेट इतर गुलाब वगैरे सभी सामान खरीदकर पानदान सजाकर घरबाराती, बाराती सबको बुलाकर पानसुपारी देती थी तथा पैसा वसुल करती थी। इसमें दोनों पक्ष आमने सामने बैठकर दुल्हे का पिता दुल्हन के पिता से दुगना पैसा वसुलने की कोशिश की जाती थी। साथ में बैठनेवाले हर आदमी अपने शक्तिनुसार पैसा डालते थे। इसी वक्त जवाई को रंग डालने के उपलक्ष में और ७ काटवार, भाट इनको भी पैसा देकर खुश किया जाता था। वही कोटवार शादी होने की खबर शासन को देते थे। इसी को कुसुंबा कहते है।
२२) सपटनी -दुल्हन की बिदाई : यह दस्तुर शादी भर में बड़ा ही नाजुक मोड पर होता है तथा जीवन का दुःख भरा क्षण होता है। दुल्हन का सारा परिवार और रिस्तेदार लडकी के बिछुडने का दुःख भरा गम में डुबे होते है। हर व्यक्ति का हृदय दर्द से हिल जाता है और अपने आपही आखों में आंसू आ जाते है। इस दस्तुर के वक्त देवघर में दुल्हा दुल्हन को सजाया जाता है तथा नाई दोनों के पाव लिखता है यानी पावों को रंग से सजाता है। दुल्हे का जिजा या भांजा फनोली के फुल को रंग में डुबारक चेहरे की सजावट करता है और फिर दुल्हा दुल्हन को मंडप लाकर खडे किया जाता है और घरवाले, मेहमान महिलायें सभी दुल्हा दुल्हन के पांव पढते है। इसके बाद नांदड को गंगार में पानी रखकर दुल्हा दुल्हन द्वारा घुमाकर बुझा दिया जाता है। इसे नांदेड बुझाना कहते है। इसी बीच कावड के साथ आये नमक और चावल को सवाई से बढाकर वापस दुल्हे पक्ष को लौटाया जाता है और दुल्हा दुल्हन को आखिर कन्यादान या लडकी सोपना, सपटनी के लिए दोनों पक्ष के पास ले जाया जाता है।
२३) लडकी सोपना ( कन्यादान ) : नांदेड बुझाने के बाद लड़की के पिता द्वारा दुल्हन को दुल्हे के पिताजी को सौप दिया जाता है तथा दुल्हन की सारी जिंदगी रक्षा करने की जिम्मेदारी दुल्हेपर और उसके परिवार पर सौंपी जाती है। इसे ही कन्यादान या लड़की सोपना कहते है। इसके लिए दुल्हा दुल्हन दोनो पक्ष के पिता, चाचा या बडे भाई मंडप के बाहर बिछायत पर आमने सामने बैठते है। पहले दुल्हन पक्ष के पास दुल्हा दुल्हन गोद में बिठाते है तथा दोनो समधी एक दूसरे को मिठाई, गुढ खिलाते है और दोनों समधी एकदूसरे को समधन का नाम पूछकर मजाक करते है। उसी प्रकार बाद में यह दस्तुर दुल्हा पक्ष के और से भी किया जाता है। इस दस्तुर के बाद दुल्हा दुल्हन वापस मंडप में नहीं जा सकते। इसी समय के बीच बारात की वापस जाने की पूर्ण तैयारी कर ली जाती है, खाचर बैल, गुडुर सजाना हो जाता है तथा गुड्डुर मंदीर के पास जाकर खड़ी कर दी जाती है। कन्यादान का दस्तुर होते ही दुल्हा दुल्हन को जीजा के कडे पर बिठाकर (बालविवाह समय) मंदी तक लाया जाता है, उस वक्त भी चंदोलो की ओळ का मंदीर नुमा सीन बनाकर बीच में दुल्हा दुल्हन को रखा जाता है, इस प्रकार बाजेगाजे और बारूद फटाके के आवाज में धूमधाम से हनुमानजी के मंदीर पर लाया जाता है। हनुमानजी की पूजा करने के बाद गुडुर के पास दुल्हा दुल्हन को लाया जाता है, तथा दुल्हन के तरफ की वरुमाम (सवासिनी) गुडुर की धुर पकड़ती है। इसी वक्त धुर छुडाने का काम आरती पकडनेवाली के पिता या भाई या अन्य रिश्तेदारो द्वारा पैसे चढ़ाकर होता है। इसके बाद दुल्हा - दुल्हन को गुडुर में बिठाकर साथ में करोली भी बैठती है और मिठी शरबत पिलाकर आखरी बिदाई की जाती है। दोनों ओर के समधी तथा मेहमान, बराती, एकदूसरे से रामराम लेकर बारात प्रस्थान होती है। रास्ते में हरगांव में बाजा नगाडे तथा बारुद फटाके का आवाज होता है तथा सभी खाचरे छकडे एक पीछे एक कतार में आराम से चलते है और आखिर अपने गांव के हनुमान मंदीर पर आकर बारात खडी हो जाती है। फिर बाजेवालों को घर आरती के लिए भेजा जाता है और घर से आरती सजाकर सभी मेहमान और महिलाये ग्रामवासी सब मिलकर दुल्हा दुल्हन के स्वागत के लिए मंदीर के पास इकट्ठा हो जाते है। आरती फिर से गुडुर के धुर पर रखी जाती है तथा इस वक्त दुल्हे का पिता आरती में पैसे डालकर धुर छुडाते है। इस वक्त आयी हुई लगभग सभी महिलाओं से धुर धराई जाती है, तथा दुल्हे के पिता सभी को यथाशक्ती पैसे देकर धुर छुडाई जाती है। इसी प्रकार दुल्हन तथा सवासिनी (करौली) को शरबत पानी पिलाकर चंदोलो की ओळ बिछाकर उसपर हात पकडकर (स्वागत स्वरूप) उतारा जाता है और हनुमानजी की पूजा अर्चना कर, नाचते कदते घर के फाटक पर आकर खडे होते है।
२४) फाटक पर दुल्हा - दुल्हन का स्वागत : फाटक पर दो पनीहारीन सिर पर पानी का गुंड लेकर खडी रहती है, उनके गुंड में दुल्हा दुल्हन पैसे डालकर पांच बार पानी का करला लेते है। तब ढिमर लोग भी अपनी जाल आडी करके दुल्हा दहन को बक्षीस मांगते है, उन्हें भी यथाशक्ति पैसा देकर जाल से मुक्त होते है। फिर फाटक पर पाट रखकर घर की कदंब परिवार की सार आजे सास, जेठानी, काके सास सभी दुल्हा दुल्हन के पांव धोते हे इस वक्त दल्हन जब तक कछ उपहार देने का वादा नहीं होता तब तक आगे पांव नहीं बढाती। इसमें गहने, पैसे देकर दुल्हन का स्वागत किया जाता है।
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