विधा: (गित- करुण रस)
आपरी माय को सीना चिर , कर देसे आर - पार
कसि विडंबना धरा पूत की, झर झर रोव् से काश्तकार।।
सूरज को पहिरे उठ जावसे
भरी तपन मा काम करसे
सब मौसम मा डट्यो रहवसे
कारी रात मा बी नइ डरावसे ।
विधाता को यो कसो न्याय से ,भूखो रवसे यो दानदार
कसि विडंबना धरा पूत की, झर झर रोव् से काश्तकार ।।
जिम्मेवारी को भार ढ़ोवसे
बाढ़, सूखो मा संयम रखसे
दूसर जन को पोट भरसे
ऊंचो समाज की इबारत लिखसे ।
राजनीति को येन शोर मा ,दब गइ ओ की चित्कार
कसि विडंबना धरा पूत की, झर झर रोव् से काश्तकार ।।
जमीन गिरवी रख मान बचावसे
आपरी बेटी को बिहाव रचावसे
आपरो हक की लड़ाई लड़वसे
आपरो सिना मा गोली खावसे ।
सेठ ,पूंजीपति अन सहूकर , सब जन करसेत अत्याचार
कसि विडंबना धरा पूत की, झर झर रोव् से काश्तकार ।
साल भर लक मेहनत करसे
रुपया पर ,आना चार मिलसे
डोस्की मा हाथ धर रोवसे
मजबूर होव् फांसी फंदा चूमसे ।
अन्नदाता की नहाय चिंता , कसो मची से हाहाकार
कसि विडंबना धरा पूत की, झर झर रोव् से काश्तकार ।।
स्वरचित एवं मौलिक
✍🏻 रचना-पंकज टेम्भरे ''जुगनू'
परसवाड़ा ,बालाघाट ,मध्य प्रदेश
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